Sunday, 23 April 2017

मरीज और चिकित्सक के बीच विश्वास जरूरी

 मरीज और चिकित्सक के बीच विश्वास जरूरी
         तीमरदारों ने अस्पताल में तोड़-फोड़ की, मरीजों के परिजनों ने नर्सिंग होम के शीशे तोड़े, तीमारदारों और डाक्टरों के बीच हाथापाई, डाक्टरों ने रोगी को जबरन अस्पताल से निकाला, पूरा पैसा देने पर अस्पताल ने मरीज की लाश देने से इन्कार किया, पैसा न मिलने पर डाक्टर ने ऑपरेशन अधूरा छोड़ा, डाक्टरों ने मरीज को अस्पताल में भर्ती करने से मना किया, प्रसूता ने सड़क पर प्रसव किया। यह सुर्खिया आज-कल अखबार एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया में आम है।




       यह एक बानगी भर है स्थितियाँ इससे भी ज्यादा गंभीर हैं चिकित्सा क्षेत्र की प्रतिबद्धता और प्रमाणिकता एवं पादर्शिता आदि सवालों के घेरे में है। पुराने जमाने में भगवान का रूप समझे जाने वाले चिकित्सक के प्रति मरीजों एवं समाज का रवैया बिल्कुल बदला है। इसके लिए केवल रोगी ही जिम्मेदार नहीं है कहीं न कहीं चिकित्सकों की जिम्मेदारी भी कम नहीं है। चिकित्सकों में सामाजिक सरोकार की कमी, उनकी व्यावसायिक सोच के कारण आज रोगी केवल चिकित्सक को सेवाप्रदाता मानने लगा है इसीलिए वह चाहता है कि उसने चिकित्सक को अपने इलाज के लिए पैसा दिया है इसलिए उसके द्वारा चुकायी गई फीस का पूरा प्रतिफल मिलना चाहिए और जब रोगी और उसकी देखभाल करने वालों को लगता है कि अस्पताल और चिकित्सक द्वारा उसकी सही देखभाल नहीं की जा रही है उसके इलाज में लापरवाही बरती जा रही है तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है और वह मारपीट, तोड़-फोड़, हाथापाई और गाली-गलौज पर अमादा हो जाता है और कभी-कभी तो डाक्टरों एवं मरीजों के परिजनों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करा दी जाती है। कभी मरीज की मौत को भगवान का बुलावा मानने वाले परिवार वाले अब यह बात मानने के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं है। वह इसके लिए चिकित्सक को ही जिम्मेदार मानते हैं। समाज की समस्या यह है कि वह चिकित्सा विज्ञान की सीमाओं पर गौर नहीं करता उसका ध्यान रोग और उसके उपचार पर ही केन्द्रीत रहता हैं। आम धारणा यही होती है कि चिकित्सक विश्ेाष व्यक्ति है जो रोगी का उपचार करता है। हम यह नहीं सोचते कि डाक्टर भी एक इंसान है उसकी भी कुछ इच्छाएं आकांक्षाए है। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिये रोगी और चिकित्सक के बीच संवादहीनता एक बड़ी वजह है। चिकित्सक और मरीज के आपसी सम्बन्धों में लगाव तभी सम्भव है जब दोनों के बीच संवाद स्थापित हो। इसी सहज संवाद और सहयोग से दोनों के मध्य भरोसा उत्पन्न होता है।



          रोगियों एवं चिकित्सकों के मध्य विश्वसनीयता के संकट के लिए कही न कहीं कुछ सीमा तक चिकित्सक भी जिम्मेदार हैं। व्यसायिकता एवं धनोर्पाजन की लालसा ने उन्हें सामाजिक सरोकारों से दूर कर दिया है। चिकित्सकों के लिए बनी आचार-संहिता पुस्तकों की शोभा बढ़ा रही है। मरीजों का शोषण और उन पर अनावश्यक जांचों का दबाव भी बढ़ रहा है। रोगियों से ज्यादा पैसे लेने के लिए तरह-तरह के हथकण्डे अपनाए जा रहे हैं बड़े-बड़े विज्ञापन पट एवं अनावश्यक डिग्रियाँ प्रदर्शित करने की होड़ लगी है और रोगों के उपचार के भ्रामक दावे प्रचारित कर रोगियों को गुमराह किया जा रहा है। बड़े-बड़े कारपोरेट घराने के पांच सितारा अस्पतालों ने रोगी को केवल उपभोक्ता माना है।
          निश्चित रूप से इस विश्वसनीयता के संकट के लिए केवल एक पक्ष जिम्मेदार नहीं है। कभी-कभी काम की अधिकता चिकित्सकों को चिड़-चिड़ा बना देती है और कभी-कभी वास्तव में रोगी की उपेक्षा हो जाती है और ऐसे में यदि किसी रोगी की जान जाती है तो उसके परिजनों का गुस्सा होना स्वाभाविक है। समाज में न तो सारे चिकित्सक सामाजिक सरोकारों से दूर है और न ही सारे रोगियों ने चिकित्सक को भगवान मानना बंद कर दिया है।




    अब समय आ गया है कि चिकित्सक एवं रोगी विगड़ते आपसी संबंधों का समीक्षा करें। चिकित्सकों को धन एवं व्यवसायिकता का लोभ छोड़कर चिकित्सा कार्य को सेवा का कार्य बनाए रखे जिससे रोगियों में उनके प्रति विश्वास का संकट उत्पन्न न हो और रोगियों और परिजनों को भी चाहिए कि वह चिकित्सक को पूरा सहयोग देकर उसमें विश्वास बनाए रखें, जिससे की इस पवित्र पेशे में विश्वनीयता का माहौल बना रहे एवं चिकित्सक पुन: भगवान के रूप मे माना जाने लगे। इन कार्यों के लिए सभी को मिल-जुलकर प्रयास करना होगा तभी अविश्वास के संकट से निपटा जा सकता है। आइए डाक्टर्स डे के अवसर पर एक विश्वास का माहौल बनाने के लिए संकल्पबद्ध हों।

Tuesday, 28 February 2017

फसल रक्षा और उन्नत खेती के उपायों पर मंथन


फसल रक्षा और उन्नत खेती के उपायों पर मंथन

इलाहबाद।  नीलगाय व जंगली आवारा पशुओं से परेशान किसानों ने प्रशासन से अभ्यारण्य बनाने की मांग की। अखिल भारतीय सरदार पटेल सेवा संस्थान अलोपीबाग में शुरू हुए पांच दिवसीय किसान मेले में किसानों ने यह प्रस्ताव प्रसाशन के समक्ष रखा ।

 हंडिया के रामराज यादव, करछना के रामललित तिवारी, बारा के राजकरन व कुलदीप सहित कई किसानों ने डीएम संजय कुमार से कहा कि पठारी इलाके में तमाम लोग पशुओं को छुट्टा छोड़ देते हैं जो फसलों को भारी नुकसान पहुचते हैं। इसके साथ नीलगायों का भी आतंक बना रहता है। इनकी वजह से खेती करना मुश्किल हो गया है । कई किसानों ने नलकूप खराब होने व नहरों में अन्त तक पानी न पहुंचने की भी शिकायत दर्ज कराई। डीएम ने किसानों से अपील की फसल काटने के बाद बचे हुए हिस्से को न जलाएं इससे मित्र कीट मर जाते हैं । वायु प्रदूषण भी होता है। यह बहुत ही घातक है। कृषि उप निदेशक विजय सिंह व जिला कृषि अधिकारी अश्वनी सिंह ने किसानों को प्रधानमंत्री बीमा योजना, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, किसान पंजीकरण सहित अन्य योजनाओं की जानकारी दी।

मुख्य विकास अधिकारी आंद्रा वामसी ने कहा कि प्रगतिशील किसानों को कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि संस्थानों में प्रशिक्षण दिलाया जाएगा। प्रशिक्षण योजना के तहत अगले महीने से किसानों का चयन किया जाएगा। कृषि से संबंधित विभागों व निजी कंपनियों की तरफ से मेले में किसान जागरूकता के कई स्टॉल भी लगाए गए हैं जो उन्नत खेती करने के विभिन्न उपायों को बता रहे हैं । डॉ. शैलेन्द्र व डॉ. योगेश चन्द्र श्रीवास्तव ने किसानों को खेती की आधुनिक तकनीकी की जानकारी भी दी। इस किसान मेले का समापन 21 मार्च को होगा।


Sunday, 7 August 2016



स्वरोजगार का बड़ा माध्यम कृषि : प्रो . हांगलू

कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र में नवयुवकों को आकर्षित करने एवं स्वरोजगार प्रदान करने के लिए पारिस्थितकीय अर्थव्यवस्था एवं मूल्यव‌िर्द्धत प्रौद्योगिकी के प्रयोग की संभावनाओं पर 19वां कृषि वैज्ञानिकों एवं कृषकों के महाधिवेशन हुआ। बायोवेद कृषि प्रौद्योगिकी सभागार में शनिवार को आयोजित उक्त महाधिवेशन में विशेषज्ञों का जमघट हुआ।




मुख्य अतिथि इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रतनलाल हांगलू ने कहा कि कृषि में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं, जरूरत है उसका सही प्रयोग करने की। कहा कि परंपरागत खेती के बजाय बदलाव करके अच्छा पैसा कमाया जा सकता है।

आयोजन सचिव एवं बायोवेद शोध संस्थान के निदेशक डॉं बीके द्विवेदी ने कहा कि अधिवेशन का मकसद कृषि के विभिन्न स्वरूपों से लोगों को जोड़ना है। डा. यूएस शर्मा ने स्वरोजगार के संसाधनों पर प्रकाश डाला। डा. डीडी पात्रा ने कहा कि तकनीक से जुड़कर युवा कम समय में अधिक सफलता प्राप्त कर सकते हैं। डा. केपी सिंह ने कृषि व पशु पालन में बढ़ती संभावनाओं पर प्रकाश डाला। अध्यक्षता डा. राजेंद्र प्रसाद ने की। कार्यक्रम में डॉ. एएस नंदा, डा. जे. कुमार, डा. केबी पांडेय, प्रो. आरपी मिश्र, डा. सीमा बहाव, डा. अख्तर हसीब ने विचार व्यक्त किए।

Monday, 18 April 2016

भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर

वर्ष 1962 में भोजपुरी फिल्मों की शुरूआत ने बनारस को आंचलिक फिल्म उद्योग के एक बड़े केन्द्र का दर्जा प्रदान कर दिया। बताते चलें कि काशी की सम्पन्न रंगमंच परम्परा तो रही ही है हिन्दी के पहले नाट्य मंचन का श्रेय भी बनारस को ही जाता है, जब वर्ष 1868 में 3 अप्रैल को हिन्दी नाटक ’जानकी मंगल’ का प्रदर्शन बनारस थिएटर (कैन्ट) में किया गया।

वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर क्योंकि क्षेत्रीय भाषा के इस सिनेमाई सफर में लगभग हर दूसरी भोजपुरी फिल्म में बनारस किसी न किसी रूप में शामिल रहा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बिहार की जीवनरेखा कही जाने वाली गंगा को शामिल करते हुए एक दो नहीं बल्कि 25 भोजपुरी फिल्मों के नाम रखे गये।



वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के उत्थान और पतन की कहानी उतनी ही दिलचस्प है जितनी भोजपुरी सिनेमा के शुरू होने की घटना। वर्ष 1950 में हिन्दी फिल्मों के चरित्र कलाकार नजीर हुसैन की मुलाकात मुम्बई में एक पुरस्कार वितरण समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई। चर्चा के दौरान राष्ट्रपति ने नजीर हुसैन से पूछा ’क्या आप पंजाबी हैं’?, नजीर हुसैन का जवाब था कि वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहने वाले हैं, यह सुनते ही राजेन्द्र बाबू भोजपुरी भाषा में बोले ’तो आप लोग भोजपुरी भाषा में एक फिल्म क्यों नहीं बनाते’, उस वक्त तो नजीर हुसैन ने ’इस उद्योग में कौन पैसा लगाएगा’, जैसे कारण बताते हुए बात को टाल दिया। लेकिन शायद उनके मन के किसी कोने में एक भोजपुरी फिल्म के निर्माण का सपना आकार लेने लगा था जो लगभग बारह वर्ष बाद वर्ष 1962 में एक ऐतिहासिक फिल्म ’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ के रूप में पल्लवित होकर सामने आया और इसी के साथ एक नये उद्योग ने जन्म लिया-भोजपुरी सिनेमा।

’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ फिल्म 21 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में राजेन्द्र बाबू को समर्पित की गयी और अगले दिन इस फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन पटना के बीना सिनेमा में शुरू हुआ, तथा इसी के आसपास की किसी तारीख को बनारस के कन्हैया चित्र मंदिर में इस फिल्म का प्रीमियर हुआ जिसे देखने के लिए बनारस के अलावा आसपास के कस्बों और गांवो के लोग टूट पड़े, जिन्हें पुलिस भी काबू न कर सकी।



भोजपुरी भाषा में सिनेमा का उदय न केवल बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल सीमा की तराई से लगे क्षेत्रों के लाखों भोजपुरी भाषियों के लिए कौतुहल मिश्रित उत्साह का वाकया बन गया, बल्कि फिजी, गुयाना, माॅरीशस, नीदरलैण्ड, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे दूरस्थ स्थानों में सालों पहले जाकर बस गये भारतीय मूल के भोजपुरी बोलने-समझने वालों के लिए भी ताजा हवा के झोंके की तरह था। इतना ही नहीं, मुंबई, कलकत्ता, राजस्थान, दक्षिण भारत में बस गये मेहनतकश भोजपुरियों ने भी खुले मन से भोजपुरी फिल्मों का स्वागत किया, तो सिर्फ इसलिए कि इस सिनेमा के जरिए उन्हें बड़े पर्दे पर अपनी भाषा में अपने गांव की खुशबू, रहन सहन, रीति रिवाज, त्योहार, बोलचाल, परंपरायें, रीति-कुरीति आदि सब देखने को मिले।

रफ़्तार ने उजाड़ दी जिन्दगी..

     
    भारत में पिछले डेढ़ दशक में देशभर की सड़कों पर क्षमता से अधिक वाहन हो गए  हैं। सुप्रीम कोर्ट में दर्ज की गई एक याचिका में दिए आंकड़ों से पता चलता है कि 2010 में भारत में करीब 46.89 लाख किलोमीटर सड़कें और 11.49 करोड़ वाहन थे। जिसमे  4.97 लाख सड़क हादसे हुए। इन हादसों में ज्यादातर मरने वाले लोगों में 40 फीसदी, 26 से 45 वर्ष  आयुवर्ग के होते हैं। यही वह महत्वपूर्ण समय होता है, जब इन पर परिवार के उत्तरदायित्व के निर्वहन का सबसे ज्यादा दबाव होता है। ऐसे में दुर्घटना में प्राण गंवा चुके व्यक्ति के परिजनों पर सामाजिक, आर्थिक और आवासीय समस्याओं का संकट एक साथ टूट पड़ता है। इन हादसों में 19 से 25 साल के इतने युवा मारे जाते हैं, जितने लोग कैंसर और मलेरिया से भी नहीं मरते। ये हादसे मानवजन्य विसंगतियों को भी बढ़ावा दे रहे हैं। आबादी में पीढ़ी व आयुवर्ग के अनुसार जो अंतर होना चाहिए,उसका संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। यदि सड़क पर गति को नियंत्रित नहीं किया गया तो 2020 तक भारत में 700000 और दुनिया में प्रति वर्ष 84 लाख से भी ज्यादा मौतें सड़क हादसों में होगी। नतीजतन संबंधित देशों को 235 अरब रुपए की आर्थिक क्षति झेलनी होगी। ऐसे में शायद आबादी नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन की जरुरत ही नहीं रह जाएगी ?





           हादसों पर नियंत्रण के लिए केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकारी ने मोटर वाहन अधिनियम में बदलाव के संकेत दिए हैं। तीन बार यातायात संकेत का उल्लंघन के बाद चालक का अनुज्ञा-पत्र (लायसेंस) छह माह के लिए निलंबित कर दिया जाएगा। इसके बाद संकेतक को ठेंगा दिखाया जाता है तो लायसेंस हमेशा के लिए रद्द कर दिया जाएगा। शराब पीकर वाहन चलाने और गाड़ी चलाते में मोबाइल पर बात करने वाले चालकों पर भी सख्त कार्रवाई की दरकार है। यहां सवाल उठता है कि ऐसी कार्रवाईयों की हकीकत कैसे जानी जाएगी ? हमारा यातायात सिस्टम  एक तो भ्रष्ट है, दूसरे कर्त्तव्य स्थल से ज्यादातर समय बेफिक्र  रहता है, और  कई बार यातायात कर्मियों को भी कर्त्तव्य पालन के दौरान नशे की हालत में पकड़ा गया है। इसलिए यातायात पुलिस को सुधारे बिना सख्त कानून बन भी जाएं, तो उनसे होगा क्या ? लिहाजा कानूनी सख्ती से कहीं ज्यादा यातायात पुलिस को सुधारने की जरुरत है। जो सख्ती से यातायात नियमों का पालन करें  लोगों से करवाए ।  तभी हादसों में होने वाली मौतों से खुद को और अपने युवा समाज  रक्षा क्र सकते हैं ।


Wednesday, 13 April 2016

मेहनत करना तो कोई गौरैया से सीखे....

     
      सर्दियाँ शुरू को थीं और एक  चिड़िया का घोंसला पुराना हो चुका था। उसने सोचा चलो एक नया घोंसला बनाते हैं ताकि उसे ठण्ड के दिनों में दिक्कतों का सामना  न करना पड़े । अगली सुबह वह  उठी और पास के एक खेत से चुन-चुन कर तिनके जमा करने लगी। सुबह से शाम तक वो इसी काम में लगी रही और अंततः एक शानदार घोंसला तैयार कर लिया। पर पुराने घोंसले से अत्यधिक लगाव होने के कारण उसने सोचा चलो आज एक आखिरी रात उसी में गुजारती हूँ और कल से नए घोंसले में अपना आशियाना बनायेंगे। रात में चिड़िया वहीँ सो गयी।
     अगली सुबह उठते ही वह अपने नए घोंसले की तरफ उड़ी, पर जैसे ही वहां पहुंची उसकी आँखें फटी की फटी रह  गयीं; किसी और चिड़िया ने उसका घोंसला तहस-नहस कर दिया था। यह देखकर उसकी आँखें भर आयीं, चिड़िया मायूस हो गयी, आखिर उसने बड़े मेहनत और लगन से अपना घोंसला बनाया था और किसी ने रातों-रात उसे तबाह कर दिया था।
      पर अगले ही पल कुछ अजीब हुआ, उसने गहरी सांस ली, हल्का सा मुस्कुराई और एक बार फिर उस खेत से जाकर तिनके चुनने लगी। उस दिन की तरह आज भी उसने सुबह से शाम तक मेहनत की और एक बार फिर एक नया और बेहतर घोंसला तैयार कर लिया।
जब हमारी मेहनत पर पानी फिर जाता है तो हम क्या करते हैं – शिकायत करते हैं,  दुनिया से इसका रोना रोते हैं,  लोगों को कोसते हैं और अपनी निष्फलता मिटाने को न जाने क्या-क्या करते हैं पर हम एक चीज नहीं करते कि फ़ौरन उस बिगड़े हुए काम को दुबारा सही करने का प्रयास नहीं करते। चिड़िया की यह  कहानी यह सीख देती है कि चिड़िया घोंसला उजड़ जाने के बाद चाहती तो चिड़िया अपनी सारी उर्जा औरों से लड़ने, शिकायत करने और बदला लेने का सोचने में लगा देती। पर उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि उसी उर्जा से फिर से एक नया घोंसला तैयार कर लिया। इस प्रकार जब कभी हमारे साथ कुछ बहुत बुरा हो तो न्याय पाने का प्रयास ज़रुरु करें, पर साथ ही ध्यान रखें कि कहीं हम अपनी सारी ऊर्जा गुस्से और शिकायत में ही न गँवा दे। 

Tuesday, 12 April 2016

हाय रे यह महंगाई

  
          सूखा के चलते किसान व मजदूर कई वर्षों से परेशान हैं । जहां पर लोगों की आमदनी बहुत कम है , वहीँ खर्चे अधिक हैं । किसानों को कोई भी रास्ता सूझ रहा है । यह किसी एक किसान का  हाल नहीं है , जब कि पूरे देश के किसानों की यही स्थिति है । ग्रामीण क्षेत्र में दो जून की रोटी के जुगाड़  किसान व मजदूर परिवार के लोगों को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है । इसके बाद भी उनके घर में शाम को चूल्हा जले इसकी कोई गारंटी नहीं है । सरकारों को भी इस ओर सोचना होगा । 


  

                     बजट सत्र २०१६ - २०१७ में इस प्रकार का कोई स्पष्ट कदम सरकार ने किसान और मजदूर तबके  लिए नहीं उठाया है । यूँ तो सरकार मॅहगाई को कम करने का दावा किया करती  है , लेकिन जमीनी हकीकत कुछ  और ही है । दाल , चावल ,चीनी व अन्य जरूरी खाद्य सामान की कीमतें आसमान छू रहीं हैं । जिससे आम इंसान की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही हैं । यूँ तो जब भी नई सरकारे बनती हैं तो लोग नई उम्मीद के साथ सपना देखने लगते हैं , कि सत्ते में आई सरकार महगाई कम करेगी पर अभी तक उनका  पूरा नहीं हो सका है । लोगो ने मोदी सरकार को इसी उम्मीद को बनाए रखने के उददेश से बनाया था । लेकिन वह भी महगाई कम करने में सफल नहीं हो सकी उनके वादे विफल होते दिख रहे हैं ।