Monday 18 April 2016

भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर

वर्ष 1962 में भोजपुरी फिल्मों की शुरूआत ने बनारस को आंचलिक फिल्म उद्योग के एक बड़े केन्द्र का दर्जा प्रदान कर दिया। बताते चलें कि काशी की सम्पन्न रंगमंच परम्परा तो रही ही है हिन्दी के पहले नाट्य मंचन का श्रेय भी बनारस को ही जाता है, जब वर्ष 1868 में 3 अप्रैल को हिन्दी नाटक ’जानकी मंगल’ का प्रदर्शन बनारस थिएटर (कैन्ट) में किया गया।

वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर क्योंकि क्षेत्रीय भाषा के इस सिनेमाई सफर में लगभग हर दूसरी भोजपुरी फिल्म में बनारस किसी न किसी रूप में शामिल रहा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बिहार की जीवनरेखा कही जाने वाली गंगा को शामिल करते हुए एक दो नहीं बल्कि 25 भोजपुरी फिल्मों के नाम रखे गये।



वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के उत्थान और पतन की कहानी उतनी ही दिलचस्प है जितनी भोजपुरी सिनेमा के शुरू होने की घटना। वर्ष 1950 में हिन्दी फिल्मों के चरित्र कलाकार नजीर हुसैन की मुलाकात मुम्बई में एक पुरस्कार वितरण समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई। चर्चा के दौरान राष्ट्रपति ने नजीर हुसैन से पूछा ’क्या आप पंजाबी हैं’?, नजीर हुसैन का जवाब था कि वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहने वाले हैं, यह सुनते ही राजेन्द्र बाबू भोजपुरी भाषा में बोले ’तो आप लोग भोजपुरी भाषा में एक फिल्म क्यों नहीं बनाते’, उस वक्त तो नजीर हुसैन ने ’इस उद्योग में कौन पैसा लगाएगा’, जैसे कारण बताते हुए बात को टाल दिया। लेकिन शायद उनके मन के किसी कोने में एक भोजपुरी फिल्म के निर्माण का सपना आकार लेने लगा था जो लगभग बारह वर्ष बाद वर्ष 1962 में एक ऐतिहासिक फिल्म ’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ के रूप में पल्लवित होकर सामने आया और इसी के साथ एक नये उद्योग ने जन्म लिया-भोजपुरी सिनेमा।

’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ फिल्म 21 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में राजेन्द्र बाबू को समर्पित की गयी और अगले दिन इस फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन पटना के बीना सिनेमा में शुरू हुआ, तथा इसी के आसपास की किसी तारीख को बनारस के कन्हैया चित्र मंदिर में इस फिल्म का प्रीमियर हुआ जिसे देखने के लिए बनारस के अलावा आसपास के कस्बों और गांवो के लोग टूट पड़े, जिन्हें पुलिस भी काबू न कर सकी।



भोजपुरी भाषा में सिनेमा का उदय न केवल बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल सीमा की तराई से लगे क्षेत्रों के लाखों भोजपुरी भाषियों के लिए कौतुहल मिश्रित उत्साह का वाकया बन गया, बल्कि फिजी, गुयाना, माॅरीशस, नीदरलैण्ड, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे दूरस्थ स्थानों में सालों पहले जाकर बस गये भारतीय मूल के भोजपुरी बोलने-समझने वालों के लिए भी ताजा हवा के झोंके की तरह था। इतना ही नहीं, मुंबई, कलकत्ता, राजस्थान, दक्षिण भारत में बस गये मेहनतकश भोजपुरियों ने भी खुले मन से भोजपुरी फिल्मों का स्वागत किया, तो सिर्फ इसलिए कि इस सिनेमा के जरिए उन्हें बड़े पर्दे पर अपनी भाषा में अपने गांव की खुशबू, रहन सहन, रीति रिवाज, त्योहार, बोलचाल, परंपरायें, रीति-कुरीति आदि सब देखने को मिले।

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