आधी आबादी के सशक्तिकरण के बगैर समाज और देश के विकास की कोरी कल्पना ही की जा सकती है। महिलाओं का सशक्तिकरण लंबे समय से चिंता का विषय रहा है और यह आज भी समय की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत बनी हुई है। जनमाध्यमों के व्यापक पहुंच एवं प्रभाव को देखते हुए यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन माध्यमों की भूमिका के बगैर महिला सशक्तिकरण जैसे विषय को आगे ले जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
सिनेमा ऐसा ही एक जनमाध्यम है जिसका महिलाओं के ऊपर बहुत व्यापक प्रभाव होता है. ऐसे में यह जानना जरुरी हो जाता है की आखिर सिनेमा में महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव हो रहा है. महिलाओं को किस रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है. क्या महिलाएं अब भी लोगो, विशेषकर एक खास पुरुष वर्ग के मनोरंजन का साधन हैं या उनकी अपनी स्थिति में भी सुधार की शुरुआत हुई है ?
आरंभिक दौर की मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में ऐसी महिलाओं को दिखाया गया जो धर्म एवं पौराणिक कथाओं से प्रेरित थी । आजादी के बाद के दौर की कुछ फिल्में, ( गोरी:1968, दहेज:1950, बीवी हो तो ऐसी:1988 पति परमेश्वर,1958) जैसी फिल्मों में उन्हें सीता के रूप में पति को परमेश्वर मानने वाली महिला के रूप में दिखाया गया। ये अपने पति और परिवार के लिए सब कुछ त्याग देती हैं। पति के अहम् को संतुष्ट करने के लिए सब कुछ छोड. देने वाली महिला को देखा गया (अभिमान,1973)।
इन फिल्मों में एक दौर वह भी आया जब हीरोइन की भूमिका महत्वपूर्ण है और वे काफी पढ़ी लिखी हैं लेकिन उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. कभी खुशी, कभी गम(2000 ) कुछ कुछ होता है(1998),हम आपके हैं कौन (1994)हम साथ साथ हैं(1999) में महिलाओं को इसी रूप में दिखाया गया। इन फिल्मों में महिलाओं की भूमिका परिवार केंद्रित रही। वे काफी पारंपरिक एवं घरेलू रूप में देखी गई।
समकालीन दौर में हिंदी सिनेमा में निर्माताओं के प्रयास और अभिनेत्रियो के सशक्त भूमिका करने की पहल से जिस्म (2003), अस्तित्व (2000 ), सलाम नमस्ते (2005), चक दे इंडिया (2007), डर्टी पिक्चर (2011) कहानी (2013), नो वन किल्ड जेसिका (2011), चमेली (2003), लज्जा (2001), चीनी कम (2007) जैसी फिल्में बनीं , जिनमें लिव इन रिलेशन, तलाक, सरोगेसी जैसे मुद्दों को बेबाकी से उठाते हुए महिलाओं की एक अलग ही तस्वीर प्रस्तुत की गई।
21वी सदी की महिलाएं अब घरों से निकलकर बाहर आई हैं और आर्थिक रूप से घर में भागीदारी कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की ठान ली है। हाल की फिल्म ‘इंगलिश विंगलिश ‘ भी इसका सटीक उदाहरण है जहां आत्मसम्मान से लबरेज एक बहुत ही सामान्य महिला घर में आर्थिक सहयोग भी करती है। फिल्म में लड्डू का व्यापार करने वाली शशि गोडबोले(श्रीदेवी)को अमेरिका में उसके इंग्लिश टीचर व्यवसायी के रूप में सम्मान देते है। लेकिन अपने यहां अंग्रेजी नहीं बोल पाने के कारण वह उपहास का पात्र बनती है। शशि का पति उसे अपना काम छोड.ने के लिए कहता है तो वह सवाल पूछती है कि उसे ऐसा क्यों करना चाहिए। फिल्म निर्देशक गौरी शिंदे ने इस फिल्म में एक ऐसी शहरी महिला के व्यक्तित्व को उजागर किया है जो पितृसत्तात्मक समाज में लंबी लड़ाई लड.कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की जिद करती है और उसमें सफल होती है।
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