फुटपाथ
व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए राज्य सरकार वेंडर नीति बनाने
जा रही है। इसके तहत शहरी क्षेत्रों में वेंडर जोन विकसित होंगे। सड़कों और
फुटपाथ पर अतिक्रमण करके बनाई गई दुकानें व खोमचे आदि इन वेंडर जोन में
शिफ्ट किए जाने की तैयारी है। स्मार्ट सिटी के मौजूदा दौर में उत्तराखंड के
शहरों की तस्वीर सुधारने की दिशा में राज्य सरकार का यह प्रयास निश्चित ही
स्वागतयोग्य है। बशर्ते, सरकार की यह कोशिश न केवल कागजों से बाहर निकले,
बल्कि धरातल पर इसे अमलीजामा भी पहनाया जा सके। दरअसल, हकीकत यह है कि
शहरों की सूरत संवारने की दिशा में सरकार के स्तर पर पूर्व में भी कुछ ऐसे
कदम उठाए गए थे, मगर अफसोस कि उनका धरातल पर क्रियान्वयन अब तक नहीं हो
सका। इस कड़ी में राज्य सरकार द्वारा बनाया गया नदी बाढ़ परिक्षेत्रण
अधिनियम उत्कृष्ट उदाहरण है। दरअसल, इस अधिनियम के तहत नदी व उसके बाढ़
प्रवाह वाले संपूर्ण क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करने का प्रावधान है।
इसका मकसद नदियों व नालों के किनारे बसी अवैध बस्तियों को वहां से हटाना
है, ताकि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के दौरान जानमाल के नुकसान से बचा जा
सके। राज्य सरकार ने इस अधिनियम को जमीन पर प्रभावी ढंग से लागू करने के
लिए नदी व नालों में बसी अवैध बस्तियों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट
करने की योजना भी बनाई। सरकार की इस योजना के जरिए नदियों का प्राकृतिक
प्रवाह क्षेत्र अतिक्रमण से मुक्त होने की उम्मीद जगी थी। साथ ही, बरसात
में बाढ़ के खतरे के साये में जीने वाले मलिन बस्तियों के लोगों को भी
सुरक्षित आशियाना मिलने की आस जगी। अफसोस कि राज्य सरकार की यह लोक लुभावन
योजना अब तक कागजों से बाहर नहीं निकल पाई है। यह दीगर बात है कि मलिन
बस्तियों के नियमितीकरण के मुद्दे पर राजनीतिक दल अक्सर चुनावी फायदा उठाने
से नहीं चूकते। फुटपाथ व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए अब जिस
वेंडर नीति को लेकर सरकार कसरत में जुटी है, उसमें भी ठेली, खोमचों में
आजीविका चलाने वाले फड़ व्यापारियों की उम्मीदों का राजनीतिक लाभ उठाने में
भी सियासी दल शायद ही पीछे रहें। वेंडर नीति भी अपने मूल उद्देश्य से न भटक
जाए, इसकी आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में राज्य सरकार को
शहरों की तस्वीर संवारने के लिए अपनी पुरानी व नई कोशिशों को प्रभावी ढंग
से धरातल पर लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी होगी। तभी उत्तराखंड
के शहर भी स्मार्ट सिटी के इस दौर में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे। -
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दादी-नानी की कहानियां तो हम सबने सुनी होंगी। सभी कहानियों में एक 'नाम'
का जिक्र बार-बार आता था। वह नाम था जंगल। जंगल से आशय पर्यावरण यानी झील,
पोखर, झाड़ी, फूल, पौधे, जीव-जंतु वाला पारिस्थितिकी तंत्र। कुल मिलाकर
हरियाली का एक अच्छा जीवंत करने वाला दृश्य । अब न ऐसी कहानी सुनी या सुनाई
जाती है और न ही इनके मूल चरित्र में यह चीजें रह गई है। अब शहर की
बहुमंजिला इमारतों और अतिक्रमण ने उस हरियाली को कहानी की कथावस्तु से
निकाल फेंका है।
धरती के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ का नतीजा हम सबको दिख रहा है। उसका
खामियाजा हम भुगत रहे हैं। जहां कुछ साल पहले घने जंगल हुआ करते थे, वहां
आज बड़ी- बड़ी इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। जहां कभी पानी से लबालब भरे
ताल, पोखर, झीलें और अन्य जलस्रोत हुआ करते थे, आज अमूमन उनका अस्तित्व ही
नहीं है। जो हैं भी वे सूखे उजाड़ पड़े हैं। मौसम बदल रहा है। जीव-जंतु
गायब हो रहे हैं। फसलों की पैदावार घट रही है। नई-नई बीमारियां लोगों को
जकड़ रही हैं। समुद्र उफन रहा है। पर्यावरण के हर क्षेत्र को हम असंतुलित
करते जा रहे हैं।
जंगल, झील, पोखर, तालाब, जीव-जंतु सहित किसी पारिस्थितिकी के सभी तत्व धरती
का गहना हैं। हमने धरती के इस अलंकार को छीन कर उसे वीरान बना दिया है।
उसकी हरियाली को छीनकर उसे उघाड़ दिया है। उसकी सुरम्य छटा को हमने छांट
दिया है। स्वार्थों के लिए प्रकृति का खूब दोहन किया लेकिन बदले में उसे
उतना दे नहीं सके। विकास की अंधी दौड़ हमने गलत रास्ते पर लगा ली। आखिर
धरती हमारी है। जल, जंगल और जमीन हमारे हैं। हम ही इनका इस्तेमाल करते हैं।
आज अगर इनके अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है तो इसे कौन दूर करेगा? इसका
दुष्परिणाम समाज के सभी वर्गों पर बराबर पड़ रहा है। लिहाजा हम सबको ही आगे
आना होगा। ऐसे में पर्यावरण का संरक्षण हम सबके लिए सबसे बड़ा मुद्दा बन
जाता है। तो आइए, अपने सार्थक प्रयासों से पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें
और धरती को उसका सौंदर्य फिर लौटाएं।
फुटपाथ
व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए राज्य सरकार वेंडर नीति बनाने
जा रही है। इसके तहत शहरी क्षेत्रों में वेंडर जोन विकसित होंगे। सड़कों और
फुटपाथ पर अतिक्रमण करके बनाई गई दुकानें व खोमचे आदि इन वेंडर जोन में
शिफ्ट किए जाने की तैयारी है। स्मार्ट सिटी के मौजूदा दौर में उत्तराखंड के
शहरों की तस्वीर सुधारने की दिशा में राज्य सरकार का यह प्रयास निश्चित ही
स्वागतयोग्य है। बशर्ते, सरकार की यह कोशिश न केवल कागजों से बाहर निकले,
बल्कि धरातल पर इसे अमलीजामा भी पहनाया जा सके। दरअसल, हकीकत यह है कि
शहरों की सूरत संवारने की दिशा में सरकार के स्तर पर पूर्व में भी कुछ ऐसे
कदम उठाए गए थे, मगर अफसोस कि उनका धरातल पर क्रियान्वयन अब तक नहीं हो
सका। इस कड़ी में राज्य सरकार द्वारा बनाया गया नदी बाढ़ परिक्षेत्रण
अधिनियम उत्कृष्ट उदाहरण है। दरअसल, इस अधिनियम के तहत नदी व उसके बाढ़
प्रवाह वाले संपूर्ण क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करने का प्रावधान है।
इसका मकसद नदियों व नालों के किनारे बसी अवैध बस्तियों को वहां से हटाना
है, ताकि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के दौरान जानमाल के नुकसान से बचा जा
सके। राज्य सरकार ने इस अधिनियम को जमीन पर प्रभावी ढंग से लागू करने के
लिए नदी व नालों में बसी अवैध बस्तियों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट
करने की योजना भी बनाई। सरकार की इस योजना के जरिए नदियों का प्राकृतिक
प्रवाह क्षेत्र अतिक्रमण से मुक्त होने की उम्मीद जगी थी। साथ ही, बरसात
में बाढ़ के खतरे के साये में जीने वाले मलिन बस्तियों के लोगों को भी
सुरक्षित आशियाना मिलने की आस जगी। अफसोस कि राज्य सरकार की यह लोक लुभावन
योजना अब तक कागजों से बाहर नहीं निकल पाई है। यह दीगर बात है कि मलिन
बस्तियों के नियमितीकरण के मुद्दे पर राजनीतिक दल अक्सर चुनावी फायदा उठाने
से नहीं चूकते। फुटपाथ व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए अब जिस
वेंडर नीति को लेकर सरकार कसरत में जुटी है, उसमें भी ठेली, खोमचों में
आजीविका चलाने वाले फड़ व्यापारियों की उम्मीदों का राजनीतिक लाभ उठाने में
भी सियासी दल शायद ही पीछे रहें। वेंडर नीति भी अपने मूल उद्देश्य से न भटक
जाए, इसकी आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में राज्य सरकार को
शहरों की तस्वीर संवारने के लिए अपनी पुरानी व नई कोशिशों को प्रभावी ढंग
से धरातल पर लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी होगी। तभी उत्तराखंड
के शहर भी स्मार्ट सिटी के इस दौर में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे। -
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