Monday 18 April 2016

भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर

वर्ष 1962 में भोजपुरी फिल्मों की शुरूआत ने बनारस को आंचलिक फिल्म उद्योग के एक बड़े केन्द्र का दर्जा प्रदान कर दिया। बताते चलें कि काशी की सम्पन्न रंगमंच परम्परा तो रही ही है हिन्दी के पहले नाट्य मंचन का श्रेय भी बनारस को ही जाता है, जब वर्ष 1868 में 3 अप्रैल को हिन्दी नाटक ’जानकी मंगल’ का प्रदर्शन बनारस थिएटर (कैन्ट) में किया गया।

वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के स्वर्णिम दौर का साक्षी रहा है बनारस शहर क्योंकि क्षेत्रीय भाषा के इस सिनेमाई सफर में लगभग हर दूसरी भोजपुरी फिल्म में बनारस किसी न किसी रूप में शामिल रहा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा बिहार की जीवनरेखा कही जाने वाली गंगा को शामिल करते हुए एक दो नहीं बल्कि 25 भोजपुरी फिल्मों के नाम रखे गये।



वास्तव में भोजपुरी सिनेमा के उत्थान और पतन की कहानी उतनी ही दिलचस्प है जितनी भोजपुरी सिनेमा के शुरू होने की घटना। वर्ष 1950 में हिन्दी फिल्मों के चरित्र कलाकार नजीर हुसैन की मुलाकात मुम्बई में एक पुरस्कार वितरण समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद से हुई। चर्चा के दौरान राष्ट्रपति ने नजीर हुसैन से पूछा ’क्या आप पंजाबी हैं’?, नजीर हुसैन का जवाब था कि वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहने वाले हैं, यह सुनते ही राजेन्द्र बाबू भोजपुरी भाषा में बोले ’तो आप लोग भोजपुरी भाषा में एक फिल्म क्यों नहीं बनाते’, उस वक्त तो नजीर हुसैन ने ’इस उद्योग में कौन पैसा लगाएगा’, जैसे कारण बताते हुए बात को टाल दिया। लेकिन शायद उनके मन के किसी कोने में एक भोजपुरी फिल्म के निर्माण का सपना आकार लेने लगा था जो लगभग बारह वर्ष बाद वर्ष 1962 में एक ऐतिहासिक फिल्म ’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ के रूप में पल्लवित होकर सामने आया और इसी के साथ एक नये उद्योग ने जन्म लिया-भोजपुरी सिनेमा।

’गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ फिल्म 21 फरवरी 1963 को पटना के सदाकत आश्रम में राजेन्द्र बाबू को समर्पित की गयी और अगले दिन इस फिल्म का सार्वजनिक प्रदर्शन पटना के बीना सिनेमा में शुरू हुआ, तथा इसी के आसपास की किसी तारीख को बनारस के कन्हैया चित्र मंदिर में इस फिल्म का प्रीमियर हुआ जिसे देखने के लिए बनारस के अलावा आसपास के कस्बों और गांवो के लोग टूट पड़े, जिन्हें पुलिस भी काबू न कर सकी।



भोजपुरी भाषा में सिनेमा का उदय न केवल बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल सीमा की तराई से लगे क्षेत्रों के लाखों भोजपुरी भाषियों के लिए कौतुहल मिश्रित उत्साह का वाकया बन गया, बल्कि फिजी, गुयाना, माॅरीशस, नीदरलैण्ड, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे दूरस्थ स्थानों में सालों पहले जाकर बस गये भारतीय मूल के भोजपुरी बोलने-समझने वालों के लिए भी ताजा हवा के झोंके की तरह था। इतना ही नहीं, मुंबई, कलकत्ता, राजस्थान, दक्षिण भारत में बस गये मेहनतकश भोजपुरियों ने भी खुले मन से भोजपुरी फिल्मों का स्वागत किया, तो सिर्फ इसलिए कि इस सिनेमा के जरिए उन्हें बड़े पर्दे पर अपनी भाषा में अपने गांव की खुशबू, रहन सहन, रीति रिवाज, त्योहार, बोलचाल, परंपरायें, रीति-कुरीति आदि सब देखने को मिले।

रफ़्तार ने उजाड़ दी जिन्दगी..

     
    भारत में पिछले डेढ़ दशक में देशभर की सड़कों पर क्षमता से अधिक वाहन हो गए  हैं। सुप्रीम कोर्ट में दर्ज की गई एक याचिका में दिए आंकड़ों से पता चलता है कि 2010 में भारत में करीब 46.89 लाख किलोमीटर सड़कें और 11.49 करोड़ वाहन थे। जिसमे  4.97 लाख सड़क हादसे हुए। इन हादसों में ज्यादातर मरने वाले लोगों में 40 फीसदी, 26 से 45 वर्ष  आयुवर्ग के होते हैं। यही वह महत्वपूर्ण समय होता है, जब इन पर परिवार के उत्तरदायित्व के निर्वहन का सबसे ज्यादा दबाव होता है। ऐसे में दुर्घटना में प्राण गंवा चुके व्यक्ति के परिजनों पर सामाजिक, आर्थिक और आवासीय समस्याओं का संकट एक साथ टूट पड़ता है। इन हादसों में 19 से 25 साल के इतने युवा मारे जाते हैं, जितने लोग कैंसर और मलेरिया से भी नहीं मरते। ये हादसे मानवजन्य विसंगतियों को भी बढ़ावा दे रहे हैं। आबादी में पीढ़ी व आयुवर्ग के अनुसार जो अंतर होना चाहिए,उसका संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। यदि सड़क पर गति को नियंत्रित नहीं किया गया तो 2020 तक भारत में 700000 और दुनिया में प्रति वर्ष 84 लाख से भी ज्यादा मौतें सड़क हादसों में होगी। नतीजतन संबंधित देशों को 235 अरब रुपए की आर्थिक क्षति झेलनी होगी। ऐसे में शायद आबादी नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन की जरुरत ही नहीं रह जाएगी ?





           हादसों पर नियंत्रण के लिए केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकारी ने मोटर वाहन अधिनियम में बदलाव के संकेत दिए हैं। तीन बार यातायात संकेत का उल्लंघन के बाद चालक का अनुज्ञा-पत्र (लायसेंस) छह माह के लिए निलंबित कर दिया जाएगा। इसके बाद संकेतक को ठेंगा दिखाया जाता है तो लायसेंस हमेशा के लिए रद्द कर दिया जाएगा। शराब पीकर वाहन चलाने और गाड़ी चलाते में मोबाइल पर बात करने वाले चालकों पर भी सख्त कार्रवाई की दरकार है। यहां सवाल उठता है कि ऐसी कार्रवाईयों की हकीकत कैसे जानी जाएगी ? हमारा यातायात सिस्टम  एक तो भ्रष्ट है, दूसरे कर्त्तव्य स्थल से ज्यादातर समय बेफिक्र  रहता है, और  कई बार यातायात कर्मियों को भी कर्त्तव्य पालन के दौरान नशे की हालत में पकड़ा गया है। इसलिए यातायात पुलिस को सुधारे बिना सख्त कानून बन भी जाएं, तो उनसे होगा क्या ? लिहाजा कानूनी सख्ती से कहीं ज्यादा यातायात पुलिस को सुधारने की जरुरत है। जो सख्ती से यातायात नियमों का पालन करें  लोगों से करवाए ।  तभी हादसों में होने वाली मौतों से खुद को और अपने युवा समाज  रक्षा क्र सकते हैं ।


Wednesday 13 April 2016

मेहनत करना तो कोई गौरैया से सीखे....

     
      सर्दियाँ शुरू को थीं और एक  चिड़िया का घोंसला पुराना हो चुका था। उसने सोचा चलो एक नया घोंसला बनाते हैं ताकि उसे ठण्ड के दिनों में दिक्कतों का सामना  न करना पड़े । अगली सुबह वह  उठी और पास के एक खेत से चुन-चुन कर तिनके जमा करने लगी। सुबह से शाम तक वो इसी काम में लगी रही और अंततः एक शानदार घोंसला तैयार कर लिया। पर पुराने घोंसले से अत्यधिक लगाव होने के कारण उसने सोचा चलो आज एक आखिरी रात उसी में गुजारती हूँ और कल से नए घोंसले में अपना आशियाना बनायेंगे। रात में चिड़िया वहीँ सो गयी।
     अगली सुबह उठते ही वह अपने नए घोंसले की तरफ उड़ी, पर जैसे ही वहां पहुंची उसकी आँखें फटी की फटी रह  गयीं; किसी और चिड़िया ने उसका घोंसला तहस-नहस कर दिया था। यह देखकर उसकी आँखें भर आयीं, चिड़िया मायूस हो गयी, आखिर उसने बड़े मेहनत और लगन से अपना घोंसला बनाया था और किसी ने रातों-रात उसे तबाह कर दिया था।
      पर अगले ही पल कुछ अजीब हुआ, उसने गहरी सांस ली, हल्का सा मुस्कुराई और एक बार फिर उस खेत से जाकर तिनके चुनने लगी। उस दिन की तरह आज भी उसने सुबह से शाम तक मेहनत की और एक बार फिर एक नया और बेहतर घोंसला तैयार कर लिया।
जब हमारी मेहनत पर पानी फिर जाता है तो हम क्या करते हैं – शिकायत करते हैं,  दुनिया से इसका रोना रोते हैं,  लोगों को कोसते हैं और अपनी निष्फलता मिटाने को न जाने क्या-क्या करते हैं पर हम एक चीज नहीं करते कि फ़ौरन उस बिगड़े हुए काम को दुबारा सही करने का प्रयास नहीं करते। चिड़िया की यह  कहानी यह सीख देती है कि चिड़िया घोंसला उजड़ जाने के बाद चाहती तो चिड़िया अपनी सारी उर्जा औरों से लड़ने, शिकायत करने और बदला लेने का सोचने में लगा देती। पर उसने ऐसा नहीं किया, बल्कि उसी उर्जा से फिर से एक नया घोंसला तैयार कर लिया। इस प्रकार जब कभी हमारे साथ कुछ बहुत बुरा हो तो न्याय पाने का प्रयास ज़रुरु करें, पर साथ ही ध्यान रखें कि कहीं हम अपनी सारी ऊर्जा गुस्से और शिकायत में ही न गँवा दे। 

Tuesday 12 April 2016

हाय रे यह महंगाई

  
          सूखा के चलते किसान व मजदूर कई वर्षों से परेशान हैं । जहां पर लोगों की आमदनी बहुत कम है , वहीँ खर्चे अधिक हैं । किसानों को कोई भी रास्ता सूझ रहा है । यह किसी एक किसान का  हाल नहीं है , जब कि पूरे देश के किसानों की यही स्थिति है । ग्रामीण क्षेत्र में दो जून की रोटी के जुगाड़  किसान व मजदूर परिवार के लोगों को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है । इसके बाद भी उनके घर में शाम को चूल्हा जले इसकी कोई गारंटी नहीं है । सरकारों को भी इस ओर सोचना होगा । 


  

                     बजट सत्र २०१६ - २०१७ में इस प्रकार का कोई स्पष्ट कदम सरकार ने किसान और मजदूर तबके  लिए नहीं उठाया है । यूँ तो सरकार मॅहगाई को कम करने का दावा किया करती  है , लेकिन जमीनी हकीकत कुछ  और ही है । दाल , चावल ,चीनी व अन्य जरूरी खाद्य सामान की कीमतें आसमान छू रहीं हैं । जिससे आम इंसान की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही हैं । यूँ तो जब भी नई सरकारे बनती हैं तो लोग नई उम्मीद के साथ सपना देखने लगते हैं , कि सत्ते में आई सरकार महगाई कम करेगी पर अभी तक उनका  पूरा नहीं हो सका है । लोगो ने मोदी सरकार को इसी उम्मीद को बनाए रखने के उददेश से बनाया था । लेकिन वह भी महगाई कम करने में सफल नहीं हो सकी उनके वादे विफल होते दिख रहे हैं । 









टिप्पणी अथवा कार्य के खिलाफ लोकतांत्रिक ढंग से न्याय मांगने का अधिकार सबको हासिल है।

          आतंकवाद से जुड़ी ऐसी कई घटना है , जो  आतंकवाद को बढ़ावा दे रही है जैसे -   सिडनी के एक कैफे में बंदूक की नोक पर अनेक लोगों को बंधक बनाए जाने की घटना उस आतंकवाद की गंभीरता को नए सिरे से रेखांकित कर रही थी , जिससे आज पूरी दुनिया को जूझना पड़ रहा है। जिसकी जांच के बाद ही पता चला  कि इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार है और उसका मकसद क्या है, लेकिन इस मामले ने दुनिया को इस खतरे से आगाह कराया है कि कट्टरपंथी सोच के कितने गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। 

      आतंकवाद की समस्या अब बहुत गंभीर हो चुकी है। पिछले दो-तीन सालों में यह समस्या इस हद तक बढ़ी है कि कोई भी देश खुद को सुरक्षित नहीं मान सकता। इस्लामिक कट्टरता को बढ़ावा देने वाले तत्व पूरी दुनिया में फैल चुके हैं और इनसे सामान्य तौर-तरीकों से मुकाबला नहीं किया जा सकता। जब तक कट्टरता और उससे उपजे आतंकवाद के खिलाफ दो स्तरों पर लड़ाई नहीं लड़ी जाएगी तब तक इसका फैलाव होता ही रहेगा। इस आतंकवाद से सैन्य और सरकारी स्तर पर तो लड़ना ही होगा, बल्कि विचारधारा के स्तर पर भी इसके खिलाफ ठोस लड़ाई छेड़नी होगी। जब तक कट्टरता की विचारधारा नहीं पराजित होगी तब तक आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जीता नहीं जा सकता। यह विचारधारा ही है जो नए-नए आतंकी तैयार करती है। 

           हैरानी की बात यह है कि ऐसे तमाम देशों को उस अमेरिका का समर्थन मिल रहा है जो आतंकवाद के खिलाफ वैश्रि्वक जंग का नेतृत्व कर रहा है। यह कैसा विरोधाभास है। हर कोई जानता है कि ये देश और उनकी सरकारें आतंकी संगठनों को हथियार और पैसा उपलब्ध कराती हैं, लेकिन वे किसी भी सजा से बची हुई हैं। सजा तो दूर की बात है, पाकिस्तानी सेना तो अमेरिका से पुरस्कार पा रही है।

    एशिया के कई  देश पहले ही आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है और यदि आतंक की इस घटना के बाद वहां सामाजिक   तनाव बढ़ता है तो न केवल इस क्षेत्र की समस्याएं बढ़ेंगी, बल्कि उसका असर पूरी दुनिया में पड़ेगा। अमेरिका में 9/11 की घटना के बाद आतंकवाद वैसे ही पूरे विश्व के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। चूंकि इस आतंकवाद के केंद्र में इस्लाम की कट्टर विचारधारा को देखा जा रहा है इसलिए भारत समेत वे सभी देश सामाजिक तनाव के दौर से गुजर रहे हैं जहां अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी है और जो धार्मिक सहनशीलता के लिए जाने जाते हैं। 

          भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन यह भी सही है कि यहां आलोचना को स्वीकार करने का साहस कम ही प्रदर्शित किया जाता है। धार्मिक मामलों में मामूली टीका-टिप्पणी बड़े टकराव और यहां तक कि दंगों का कारण बन जाती हैं। ऐसे दंगों में न जाने कितने लोग मारे जा चुके हैं। कई बार तो केवल सामाजिक सुधार के लिए की जाने वाली टिप्पणी को धार्मिक रंग देकर उ‌र्ग्र विरोध शुरू कर दिया जाता है। यह ठीक नहीं, क्योंकि किसी टिप्पणी अथवा कार्य के खिलाफ लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहने, विरोध दर्ज कराने और न्याय मांगने का अधिकार सबको हासिल है।

          अंतत: आजाद भारत के जनक के रूप में गांधी जी ने सहिष्णुता की जो सीख दी उस पर सारे विश्व को ध्यान देने की आवश्यकता है।

पर्यावरण संरक्षण...


फुटपाथ व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए राज्य सरकार वेंडर नीति बनाने जा रही है। इसके तहत शहरी क्षेत्रों में वेंडर जोन विकसित होंगे। सड़कों और फुटपाथ पर अतिक्रमण करके बनाई गई दुकानें व खोमचे आदि इन वेंडर जोन में शिफ्ट किए जाने की तैयारी है। स्मार्ट सिटी के मौजूदा दौर में उत्तराखंड के शहरों की तस्वीर सुधारने की दिशा में राज्य सरकार का यह प्रयास निश्चित ही स्वागतयोग्य है। बशर्ते, सरकार की यह कोशिश न केवल कागजों से बाहर निकले, बल्कि धरातल पर इसे अमलीजामा भी पहनाया जा सके। दरअसल, हकीकत यह है कि शहरों की सूरत संवारने की दिशा में सरकार के स्तर पर पूर्व में भी कुछ ऐसे कदम उठाए गए थे, मगर अफसोस कि उनका धरातल पर क्रियान्वयन अब तक नहीं हो सका। इस कड़ी में राज्य सरकार द्वारा बनाया गया नदी बाढ़ परिक्षेत्रण अधिनियम उत्कृष्ट उदाहरण है। दरअसल, इस अधिनियम के तहत नदी व उसके बाढ़ प्रवाह वाले संपूर्ण क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करने का प्रावधान है। इसका मकसद नदियों व नालों के किनारे बसी अवैध बस्तियों को वहां से हटाना है, ताकि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के दौरान जानमाल के नुकसान से बचा जा सके। राज्य सरकार ने इस अधिनियम को जमीन पर प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए नदी व नालों में बसी अवैध बस्तियों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट करने की योजना भी बनाई। सरकार की इस योजना के जरिए नदियों का प्राकृतिक प्रवाह क्षेत्र अतिक्रमण से मुक्त होने की उम्मीद जगी थी। साथ ही, बरसात में बाढ़ के खतरे के साये में जीने वाले मलिन बस्तियों के लोगों को भी सुरक्षित आशियाना मिलने की आस जगी। अफसोस कि राज्य सरकार की यह लोक लुभावन योजना अब तक कागजों से बाहर नहीं निकल पाई है। यह दीगर बात है कि मलिन बस्तियों के नियमितीकरण के मुद्दे पर राजनीतिक दल अक्सर चुनावी फायदा उठाने से नहीं चूकते। फुटपाथ व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए अब जिस वेंडर नीति को लेकर सरकार कसरत में जुटी है, उसमें भी ठेली, खोमचों में आजीविका चलाने वाले फड़ व्यापारियों की उम्मीदों का राजनीतिक लाभ उठाने में भी सियासी दल शायद ही पीछे रहें। वेंडर नीति भी अपने मूल उद्देश्य से न भटक जाए, इसकी आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में राज्य सरकार को शहरों की तस्वीर संवारने के लिए अपनी पुरानी व नई कोशिशों को प्रभावी ढंग से धरातल पर लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी होगी। तभी उत्तराखंड के शहर भी स्मार्ट सिटी के इस दौर में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे। - See more at: http://www.jagran.com/editorial/nazariya-12025341.html#sthash.NyFc5XkY.dpuf
  
         दादी-नानी की कहानियां तो हम सबने सुनी होंगी। सभी कहानियों में एक 'नाम' का जिक्र बार-बार आता था। वह नाम था जंगल। जंगल से आशय पर्यावरण यानी झील, पोखर, झाड़ी, फूल, पौधे, जीव-जंतु वाला पारिस्थितिकी तंत्र। कुल मिलाकर हरियाली का एक अच्छा  जीवंत करने वाला दृश्य । अब न ऐसी कहानी सुनी या सुनाई जाती है और न ही इनके मूल चरित्र में यह चीजें रह गई है। अब शहर की बहुमंजिला इमारतों और अतिक्रमण  ने उस हरियाली को कहानी की कथावस्तु से निकाल फेंका है।
          धरती के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ का नतीजा हम सबको दिख रहा है। उसका खामियाजा हम भुगत रहे हैं। जहां कुछ साल पहले घने जंगल हुआ करते थे, वहां आज बड़ी- बड़ी इमारतें खड़ी हो चुकी हैं। जहां कभी पानी से लबालब भरे ताल, पोखर, झीलें और अन्य जलस्रोत  हुआ करते थे, आज अमूमन उनका अस्तित्व ही नहीं है। जो हैं भी वे सूखे उजाड़ पड़े हैं। मौसम बदल रहा है। जीव-जंतु गायब हो रहे हैं। फसलों की पैदावार घट रही है। नई-नई बीमारियां लोगों को जकड़ रही हैं। समुद्र उफन रहा है। पर्यावरण के हर क्षेत्र को हम असंतुलित करते जा रहे हैं।
        जंगल, झील, पोखर, तालाब, जीव-जंतु सहित किसी पारिस्थितिकी के सभी तत्व धरती का गहना हैं। हमने धरती के इस अलंकार को छीन कर उसे वीरान बना दिया है। उसकी हरियाली को छीनकर उसे उघाड़ दिया है। उसकी सुरम्य छटा को हमने छांट दिया है। स्वार्थों के लिए प्रकृति का खूब दोहन किया लेकिन बदले में उसे उतना दे नहीं सके। विकास की अंधी दौड़ हमने गलत रास्ते पर लगा ली। आखिर धरती हमारी है। जल, जंगल और जमीन हमारे हैं। हम ही इनका इस्तेमाल करते हैं। आज अगर इनके अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है तो इसे कौन दूर करेगा? इसका दुष्परिणाम समाज के सभी वर्गों  पर बराबर पड़ रहा है। लिहाजा हम सबको ही आगे आना होगा। ऐसे में पर्यावरण का संरक्षण हम सबके लिए सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है। तो आइए, अपने सार्थक प्रयासों से पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें और धरती को उसका सौंदर्य फिर लौटाएं।
       
फुटपाथ व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए राज्य सरकार वेंडर नीति बनाने जा रही है। इसके तहत शहरी क्षेत्रों में वेंडर जोन विकसित होंगे। सड़कों और फुटपाथ पर अतिक्रमण करके बनाई गई दुकानें व खोमचे आदि इन वेंडर जोन में शिफ्ट किए जाने की तैयारी है। स्मार्ट सिटी के मौजूदा दौर में उत्तराखंड के शहरों की तस्वीर सुधारने की दिशा में राज्य सरकार का यह प्रयास निश्चित ही स्वागतयोग्य है। बशर्ते, सरकार की यह कोशिश न केवल कागजों से बाहर निकले, बल्कि धरातल पर इसे अमलीजामा भी पहनाया जा सके। दरअसल, हकीकत यह है कि शहरों की सूरत संवारने की दिशा में सरकार के स्तर पर पूर्व में भी कुछ ऐसे कदम उठाए गए थे, मगर अफसोस कि उनका धरातल पर क्रियान्वयन अब तक नहीं हो सका। इस कड़ी में राज्य सरकार द्वारा बनाया गया नदी बाढ़ परिक्षेत्रण अधिनियम उत्कृष्ट उदाहरण है। दरअसल, इस अधिनियम के तहत नदी व उसके बाढ़ प्रवाह वाले संपूर्ण क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करने का प्रावधान है। इसका मकसद नदियों व नालों के किनारे बसी अवैध बस्तियों को वहां से हटाना है, ताकि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के दौरान जानमाल के नुकसान से बचा जा सके। राज्य सरकार ने इस अधिनियम को जमीन पर प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए नदी व नालों में बसी अवैध बस्तियों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट करने की योजना भी बनाई। सरकार की इस योजना के जरिए नदियों का प्राकृतिक प्रवाह क्षेत्र अतिक्रमण से मुक्त होने की उम्मीद जगी थी। साथ ही, बरसात में बाढ़ के खतरे के साये में जीने वाले मलिन बस्तियों के लोगों को भी सुरक्षित आशियाना मिलने की आस जगी। अफसोस कि राज्य सरकार की यह लोक लुभावन योजना अब तक कागजों से बाहर नहीं निकल पाई है। यह दीगर बात है कि मलिन बस्तियों के नियमितीकरण के मुद्दे पर राजनीतिक दल अक्सर चुनावी फायदा उठाने से नहीं चूकते। फुटपाथ व सड़कों को अतिक्रमण से मुक्त करने के लिए अब जिस वेंडर नीति को लेकर सरकार कसरत में जुटी है, उसमें भी ठेली, खोमचों में आजीविका चलाने वाले फड़ व्यापारियों की उम्मीदों का राजनीतिक लाभ उठाने में भी सियासी दल शायद ही पीछे रहें। वेंडर नीति भी अपने मूल उद्देश्य से न भटक जाए, इसकी आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में राज्य सरकार को शहरों की तस्वीर संवारने के लिए अपनी पुरानी व नई कोशिशों को प्रभावी ढंग से धरातल पर लागू करने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी होगी। तभी उत्तराखंड के शहर भी स्मार्ट सिटी के इस दौर में अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकेंगे। - See more at: http://www.jagran.com/editorial/nazariya-12025341.html#sthash.NyFc5XkY.dpuf

Sunday 10 April 2016

महिला सशक्तिकरण का सही मतलब बताता है सिनेमा

   
 आधी आबादी के सशक्तिकरण के बगैर समाज और देश के विकास की कोरी कल्पना ही की जा सकती है। महिलाओं  का सशक्तिकरण लंबे समय से चिंता का विषय रहा है और यह आज भी समय की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत बनी हुई है। जनमाध्यमों  के व्यापक पहुंच एवं प्रभाव को देखते हुए यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन माध्यमों की भूमिका के बगैर महिला सशक्तिकरण जैसे विषय को आगे ले जाना मुश्किल  ही नहीं नामुमकिन है।

सिनेमा ऐसा ही एक जनमाध्यम है जिसका महिलाओं के ऊपर बहुत व्यापक प्रभाव होता है. ऐसे में यह जानना जरुरी हो जाता है की आखिर सिनेमा में महिलाओं के साथ कैसा बर्ताव हो रहा है. महिलाओं को किस रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है. क्या महिलाएं अब भी लोगो, विशेषकर एक खास पुरुष वर्ग के मनोरंजन का साधन हैं या  उनकी अपनी स्थिति में भी सुधार की शुरुआत हुई है ?


 आरंभिक दौर की मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में  ऐसी महिलाओं को दिखाया गया जो धर्म एवं पौराणिक कथाओं  से प्रेरित थी । आजादी के बाद के दौर की कुछ फिल्में, ( गोरी:1968, दहेज:1950, बीवी हो तो ऐसी:1988 पति परमेश्वर,1958) जैसी फिल्मों में  उन्हें सीता के रूप में  पति को परमेश्वर  मानने वाली महिला के रूप में  दिखाया गया। ये अपने पति और परिवार के लिए सब कुछ त्याग देती हैं। पति के अहम् को संतुष्ट  करने के लिए सब कुछ छोड. देने वाली महिला को देखा गया (अभिमान,1973)।

 इन फिल्मों में एक दौर वह भी आया जब हीरोइन की भूमिका महत्वपूर्ण है और वे काफी पढ़ी  लिखी हैं लेकिन उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. कभी खुशी, कभी गम(2000 ) कुछ कुछ होता है(1998),हम  आपके हैं कौन (1994)हम साथ साथ हैं(1999) में महिलाओं  को इसी रूप में  दिखाया गया। इन फिल्मों में  महिलाओं की भूमिका परिवार केंद्रित  रही। वे काफी पारंपरिक एवं घरेलू रूप में  देखी गई।

समकालीन दौर में हिंदी सिनेमा में निर्माताओं  के प्रयास और अभिनेत्रियो के सशक्त भूमिका करने की पहल से जिस्म (2003), अस्तित्व (2000 ), सलाम नमस्ते (2005), चक दे इंडिया (2007), डर्टी पिक्चर (2011) कहानी (2013), नो वन किल्ड जेसिका (2011), चमेली (2003), लज्जा (2001), चीनी कम (2007) जैसी फिल्में बनीं , जिनमें लिव इन रिलेशन, तलाक, सरोगेसी जैसे मुद्दों को बेबाकी से उठाते हुए महिलाओं की एक अलग ही तस्वीर  प्रस्तुत की गई।



21वी सदी की महिलाएं अब घरों से निकलकर बाहर आई हैं और आर्थिक रूप से घर में  भागीदारी कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की ठान ली है। हाल की फिल्म ‘इंगलिश  विंगलिश ‘ भी इसका सटीक उदाहरण है जहां आत्मसम्मान से लबरेज एक बहुत ही सामान्य महिला घर में  आर्थिक सहयोग भी करती है। फिल्म में लड्डू का व्यापार करने वाली शशि  गोडबोले(श्रीदेवी)को अमेरिका में उसके इंग्लिश  टीचर व्यवसायी के रूप में  सम्मान देते है। लेकिन अपने यहां अंग्रेजी नहीं बोल पाने के कारण वह उपहास का पात्र बनती है। शशि का पति उसे अपना काम छोड.ने के लिए कहता है तो वह सवाल पूछती है कि उसे ऐसा क्यों करना चाहिए। फिल्म निर्देशक  गौरी शिंदे ने इस फिल्म में  एक ऐसी शहरी  महिला के व्यक्तित्व को उजागर किया है जो पितृसत्तात्मक समाज में  लंबी लड़ाई  लड.कर आत्मसम्मान वाली जिंदगी जीने की जिद करती है और उसमें  सफल होती है।

Saturday 9 April 2016

पानी पुनरुत्थान पहल के साथ एक अनूठी शुरुआत


बुंदेलखंड की प्रचलित जल संरक्षण की परंपरागत विधियों में से मेड़, बंधी, पोखर, तालाब हैं। यहां तालाबों की क्षमता के अनुसार उन्हें सागर की संज्ञा भी दी गयी है। यहां के तालाबों की अपनी संस्कृति एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। इसके साथ ही ये तालाब लाखों परिवारों के लिए आजीविका के स्रोत भी रहे हैं।




बुंदेलखंड बीते सात वर्षों से ऋतु असंतुलन व सूखा की चपेट में है। अनवरत अवर्षा, असमय वर्षा और स्थानीय पारंपरिक जल प्रबंधन की अपनी विधियों के साथ न्याय न होने से ये सभी जलस्रोत एक-एक कर मृतप्राय हो रहे हैं, जिनके बलबूते पर इस क्षेत्र के बाशिंदों ने बड़े से बड़े अकाल का सामना किया और अपनी जीवितता बनाये रखी है।
बुंदेलखंड क्षेत्र के जनपद महोबा के रियासत रहे कस्बा चरखारी में कमोबेश डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े तालाब है, इसमें से 7 तालाब तो ऐसे हैं, जो आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। 400 वर्षों के अनुभवों को समेटे ये तालाब वर्ष 2007 के सूखे में अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में सूखने लगे। जब छोटे-बड़े सभी जलस्रोत दम तोड़ने लगे, पशु-पक्षी, जंगली जानवर आदि सभी प्यास से मरने लगे, तब लोगों की चिंता बढ़ी और इस समस्या से निपटने हेतु लोगों ने इनको पुनर्जीवित करने की दिशा में प्रयास किया और पानी पुनरुत्थान पहल के साथ एक अनूठी शुरुआत हुई।

कम पानी में भी अच्छी पैदावार दे सकता है ये बीज

देश में खेती का बहुत बडा रकबा असिंचित है या फिर यहां सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं है। ऎसे क्षेत्रों के किसानों के लिए जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय (जबलपुर) के वैज्ञानिकों ने गेहूं का ऎसा बीज तैयार किया है, जिसके उपयोग से बिना सिंचाई के भी 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार ली जा सकती है।


 यह बीज कम पानी से भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता रखता है। इस बीज से एक पानी से प्रति हेक्टेयर करीब 25 से 30 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है। इसी प्रकार यदि दो पानी की व्यवस्था हो तो प्रति हेक्टेयर करीब 35 से 40 क्विंटल तक गेहूं की पैदावार ली जा सकती है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है उनमें किसान पहले की नमी को बचा कर अच्छी पैदावार ले सकते हैं। इसकी फसल को तैयार होने में करीब 118 से 125 दिन लगते हैं। मध्‍यप्रदेश के अलावा इस बीज की मांग महाराष्ट्र व आस-पास के क्षेत्रों से अघिक हो रही है।

मौसम में आए उतार-चढ़ाव या तापमान बढ़ने से गेहूं की फसल प्रभावित हो जाती है, लेकिन अन्य की तुलना में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अघिक होने कारण जे डब्ल्यू 3211 गेहूं की फसल पर मौसम परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है। इसके दाने चमकदार होते हैं व इसमें 10 से 12 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसके पौधे की लम्बाई 85 से 90 सेंटीमीटर तक होती है।


Friday 8 April 2016

अब तो हद कर दी

  वर्तमान समय में लगता है की प्रदेश भर में जंगलराज कायम है । प्रदेश में चारो तरफ हत्या , लूट , छिनैती जैसी बड़ी घटनाएं लगातार घटित हो रही हैं । अब तो खाकी भी सुरक्षित नहीं  रह गई है हाल  ही की घटना इलाहाबाद जनपद के बारा में चार पहिया सवार बदमाशों ने दरोगा की हत्या कर दी  हो या फिर प्रतापगढ़ जनपद के मानिकपुर में बदमाशों द्वारा  थाने पर हमला कर पहरेदार होमगार्ड को मौत के घाट उतार  देना  आखिर इन बड़ी - बड़ी घटनाओं को कौन और किसके सपोर्ट पर अंजाम दे रहे हैं ।


 क्या वर्तमान सरकार के शासन में सभी अपने मन से काम कर रहे हैं ? इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने के बाद अपराधियों पर शिकंजा कसने में क्यों पुलिस हीलाहवाली करती है । ऐसी परिथितियों में यदि समय रहते प्रदेश सरकार पूरे प्रदेश में फैली अराजकता को कम नहीं करती है तो वह दिन दूर नहीं होगा।



 जब उत्तर - प्रदेश भी बिहार प्रान्त की तरह अपराध के मामले में पूरे देश में पहला स्थान प्राप्त कर लेगा । इस समस्या से निपटान के लिए सरकार  को हर संभव प्रयश करना चाहिए ताकि प्रदेश की छवि बनी रहे । 

Thursday 7 April 2016

जन सूचना अधिकार की उड़ रही धज्जियां

                                   
   
  जन सूचना अधिकार अधिनियम की जमकर धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। वांछित सूचना देने के बजाय गोलमोल व अधूरी सूचनायें देना विभाग की आदत में शामिल हो गया है । जिससे आवेदक को मजबूरन सूचना आयोग की शरण लेनी पड़ती है ।                  
         मामला बाँदा जनपद के नरैनी ब्लाक के जन सूचना कार्यालय का है जिसमें कुरुहूँ ग्राम पंचायत अंश जरकढा के निवासी सुनील (काल्पनिक ) ने अपने ग्राम पंचायत में पिछले पांच वर्ष में गांव   में होने वाले विकास के सम्बन्ध सूचना मांगी थी की   गांव  के विकास के लिए कब और किस कार्य के  कितनी धनराशि सरकार द्वारा आवंटित की गई और उन्होंने कितना उपयोग कर  अपने ग्राम पंचायत का विकास किया । लेकिन अधिकारियो ने गोलमोल सूचना देकर भ्रमित किया है । सूचना आयुक्त  ने सूचना न देने पर २५० रुपए प्रतिदिन के हिसाब से अधिकतम २५००० रुपए तक का आर्थिक दण्ड निर्धारित किया है ।
           इसके बावजूद भी जन सूचना अधिकारी अपनी मनमानी कर रहे हैं । आम नागरिक  के सूचना पाने के अधिकार का फिर क्या होगा । जब हमारे सूचना देने वाले अधिकारी ही भ्रष्ट हैं । ऐसे में नागरिक को शांत नहीं बैठना चाहिए बल्कि सूचना पाने का हर संभव प्रयास करना होगा ।  तभी हम अपनी जिम्मेदारी से भटक चुके समाज को एक नई दिशा दे पाएंगे । 

Wednesday 6 April 2016

मजबूर हैं गन्दा अनाज खाने के लिए

                                               

      मजबूर हैं गन्दा अनाज खाने के लिए
 प्रदेश भर में खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत प्रत्येक परिवार में राशनकार्ड धारकों को खाद्य सामग्री उपलब्ध कराइ जा रही है।  लेकिन गेहूँ और चावल की गुणवत्ता बेहद ख़राब  है। मुख्यमंत्री अखिलेश  यादव ने यह योजना शुरू करते समय अधिकारियो को बुलाकर  गेहूं और चावल की गुणवत्ता कैसी है ? वे सभी अधिकारी आकर देख लें क्योकि उन्हें ही गरीबो तक पहुंचाना  है , ऐसा कानून लागू करने के समय कहा।  अधिकारियो ने स्वीकार   किया था कि हम अपने क्षेत्र में चल रही सरकारी रासन की दुकानों में अच्छी गुणवत्ता के गेहूं और चावल को  निर्धारित रियायती दाम पर उपलब्ध करायेंगें।  वहीँ मुख्यमंत्री और अधिकारियो के किये गए वादे झूठे साबित हो रहे हैं।  हल ही में बुंदेलखंड के बाँदा जनपद के कुरुहूँ एवं रसिन ग्राम पंचायतों की  सरकारी रासन की दुकानों में बहुत ही ख़राब गुणवत्ता वाले अनाज उपलब्ध कराये जा रहे हैं।  जिसमे गरीबों के खाने के लिए अनाज  साथ कंकड़ व् मिट्टी भी दी जा रही है।  जिसको  मजबूर असहाय किसानों को पेट भरने के लिए लेना पड़ता है।  इसकी शिकायत ग्रामीणों द्वारा आला अधिकारियो से की गई लेकिन उनके कान में ज़ू तक नहीं रेंगती है।   ग्रामीणों से बातचीत में उन्होंने बताया की यदि हम सरकारी रासन की दुकान की दुकान पर खराब माल न बांटने के  कहते है तो वह  बुरा कह कर अनाज देने से मना कर देता  है। ऐसी परिस्थितियों में उन गरीबो को इस प्रकार की समस्याओं से  जूझना पड़ रहा है।   सरकार को अपने स्तर से जाँच करवाना होगा  तभी गरीबो के लिए बनाया गया खाद्य सुरखा अधिनियम कानून सफल होगा और गरीबों को उनका अधिकार मिल पाएगा।